मेरी एक आशु कविता
न जाने क्यों, मन ये उदास है,
शायद हम अपनों से दूर और
अपने हमारे पास नहीं हैं।
दीपावली है मिल कर बिताना
परिवार हो जहाँ वहां रहना,
दो की दिवाली में भई,
क्या है त्यौहार का मनाना।
हमारा देश भी है इतना विशाल और विविध
जहाँ के त्यौहार भी हैं अलग अलग
कहीं है दुर्गा, कहीं गणेश की धूम,
तो कहीं दशहरा, तो कहीं ओणम
न धनतेरस की सजावट
न दुकानों में फैला सामान,
न घर के आगे पांच दिए
जैसे कुछ है अलग और असमान।
फिर भी मन को समझाना है,
हँसी ख़ुशी त्यौहार मनाना है,
जगमग रौशनी और दियो से
सारा अँधेरा दूर करना है
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